अमीरी रेखा क्यों ?



गरीबी, बेरोज़गारी, मंदी, महँगाई, भ्रष्टाचार, जनसँख्या विस्फोट, अपराध, आतंकवाद, अपसंस्कृति आदि आज देश और दुनिया के सामने बड़े संकट हैं। जब देश ने विदेशी शासन से मुक्त होकर राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी,  तब हमने सोचा था कि हम शीघ्र ही इन समस्याओं से छुटकारा पाकर सुखी और समृद्ध हो जाएँगे, लेकिन आज 72 साल बाद भी हम इन समस्याओं से,जो और उग्र हो चुकी हैं, संघर्ष कर रहे हैं। स्वतंत्र भारतवर्ष भी कई आंदोलन, कई सरकारें, कई राजनैतिक दल और राजनेता देख चुका है,लेकिन देश की बहुसंख्यक आबादी की दुर्दशा बनी हुई है । लोगों में बढ़ती निराशा अब उग्र रूप में धारण कर रही है और निहित स्वार्थी तत्त्वों द्वारा जरा से उकसाए  जाने पर जाति, संप्रदाय, मज़हब, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर होने वाले दंगों में बदल जाती है। 

प्राउटिष्ट ब्लाक, इंडिया (पीबीआई) का मानना है कि उपरोक्त समस्याओं का मूल कारण यह है कि देशवासियों ने अभी तक 'आर्थिक स्वतंत्रता' प्राप्त नहीं की ही। उन्हें वोट डालकर अपना प्रतिनिधि चुनकर सरकार बनाने का अधिकार तो प्राप्त हुआ है, लेकिन देश के संसाधनों में से अपना हिस्सा पाने की गारंटी नहीं मिली है। उत्पादन और वितरण के साधन मुट्ठीभर लोगों के कब्जे में हैं, जो पूरी अर्थव्यस्था को अपना हित साधने का यंत्र बनाए हुए हैं, और अपने धनबल से राजनैतिक व्यवस्था को अपनी अँगुलियों पर नचा रहें हैं; बाकी करोड़ों भारतवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है।

इस पृष्ठभूमि में पीबीआई की मांग है कि देश में जल्द से जल्द 'अमीरी रेखा' लागू की जाए । यानी 'किसी भी व्यक्ति या समूह को एक निश्चित सीमा से अधिक धन-संपत्ति जमा करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए । ऐसा करने से निम्नलिखित लाभ होंगे :

1. गरीबी का ख़ात्मा:  'संपत्ति रखने का अधिकार' जन्मजात अधिकार  नहीं है । चूँकि कोई भी इंसान न कुछ साथ लाता है और न साथ लेकर जाता है, और ना ही वह किसी मूल पदार्थ का निर्माता है; वह हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को  मिलाकर कर जल बना सकता है, लेकिन हाइड्रोजन और ऑक्सीजन नहीं बना सकता। अतः वह इस दुनिया की किसी भी वस्तु  का मालिक नहीं है ; उसे सिर्फ और सिर्फ 'उपयोग का अधिकार है' ।

संपत्ति रखने का अधिकार 18 वीं  सदी के अंत में अस्तित्व में आया, जब इंग्लैंड में  आरम्भ हुई औद्योगिक क्रांति ने पूँजीवाद को जन्म दिया। पूँजीपतियों ने अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए जल, जंगल, जमीन, खनिज पदार्थ, पशु-पक्षी और मनुष्यों का उपयोग और शोषण किया, और अर्जित धनशक्ति  के प्रभाव से  'ज्यादा से ज्यादा संपत्ति जमा करने और उसका मालिक होने के अधिकार' को समाजिक और कानूनी मान्यता दिलवा दी।  वरन कुछ यूरोपीय देशों को छोड़ कर अफ्रीका, एशिया, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि महादेशों की मूल संस्कृतियाँ मनुष्य को नहीं बल्कि परमात्मा को सभी संपत्ति का मालिक मानतीं हैं।

 भौतिक संपत्ति सीमित है।  पृथ्वी पर प्रचुर संसाधन हैं, परन्तु इनकी एक सीमा है। इन सीमित संसाधनों का उपयोग पृथ्वी के 7 अरब से अधिक मनुष्यों और असंख्य जीव-जंतुओं के पालन-पोषण के लिए किया जाना चाहिए। परन्तु आज यह सीमित संपत्ति मुट्ठीभर लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है, और परिणामस्वरूप  बाकी आबादी को नारकीय जीवन जीना पड़ रहा है । आज स्थिति यह कि :


  • मात्र 1 % लोग दुनिया की 50% संपत्ति के मालिक हैं।
  • मात्र 8 धनी लोगों की कुल संपत्ति दुनिया की आधी आबादी यानी साढ़े तीन अरब लोगों की कुल संपत्ति के बराबर है।
  • अमेरिका जैसे देश में भी मात्र 10 प्रतिशत लोग देश की 76  प्रतिशत सम्पत्ति के स्वामी हैं, जबकि 50 प्रतिशत अमेरिकावासियों के पास देश की मात्र 1 प्रतिशत संपत्ति है।


दूसरी ओर, 

  • भारतवर्ष की 10% आबादी के पास देश की 80% संपत्ति है, जबकि 60 प्रतिशत भारतीयों के पास 5 प्रतिशत से भी कम संपत्ति है।  
  • मात्र 57 भारतीय अरबपतियों के पास देश की 70 प्रतिशत आबादी के बराबर संपत्ति है।
  • दुनिया के एक तिहाई गरीब भारतवर्ष में रह रहे हैं। 
  • 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवार 10 हजार रुपए प्रतिमाह से अधिक नहीं कमा पा रहे हैं। 
  • लगभग 3000 भारतीय बच्चे रोज़ भूख और कुपोषण के कारण असमय मर जाते हैं।
  • 2013 से हर साल औसतन लगभग 11000 किसान आर्थिक समस्या के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। 



उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि आज की पूँजीवादी समाजार्थिक व्यवस्था, जो अनियंत्रित धन संग्रह की अनुमति ही नहीं देती बल्कि उसको बढ़ावा भी देती है, पूरी तरह अनुचित है।  इसलिए पी.बी.आई.स्पष्ट घोषणा करता है कि असीमित धनसंग्रह की छूट नहीं दी जा सकती, बल्कि सीमित संपत्ति का निम्नलिखित ढंग से न्यायोचित वितरण किया जाना चाहिए :


  • हर व्यक्ति चाहे वह नौकरी करता हो या व्यापार या खेती उसकी न्यूनतम और अधिकतम संपत्ति की सीमा तय की जानी चाहिए।
  • रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा, शिक्षा आदि जैसी मूल आवश्यकताओं को खरीदने के लिए जितने पैसे की आवश्यकता है, कम से कम उतनी आय वाले रोजगार की सभी को गारंटी देनी होगी। सभी की आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के बाद बचे धन को अधिक प्रतिभाशाली, मेहनती और ईमानदार लोगों में उनके सामाजिक योगदान के अनुसार बाँट देना होगा। 
  • न्यूनतम और अधिकतम संपत्ति के बीच दस गुना से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए। इस अंतर को कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए परन्तु पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाना  चाहिए। अंतर पूरी तरह से समाप्त करने से काम करने के लिए जरूरी प्रोत्साहन ख़त्म हो जायेगा और उत्पादकता में कमी आएगी जैसा कि कई साम्यवादी (कम्युनिष्ट) देशों में हुआ था। 

2. भ्रष्टाचार पर लगाम : इन्सान को धन की आवश्यकता दो कारणों से होती है: पहला, अपनी वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और दूसरे,अपनी भविष्य की आवश्यकतों की पूर्ति के लिए। यदि इन के लिए पर्याप्त धन का इंतजाम कर लेने के बाद भी कोई धन जमा करना जारी रखता है, तो इसका मतलब है कि वह एक मानसिक बीमारी से पीड़ित है जिसमे उसे  धन जमा करने मात्र से ही सुख प्राप्त हो रहा है, चाहे वह और उसकी  सात पुश्तें भी इस धन का पूरी तरह से उपयोग न कर पाएँ। उसके लिए पैसा जमा करना अंकों का खेल बन जाता है - करोड़, दस करोड़, फिर सौ करोड़, हज़ार करोड़  -- बीमारी बढ़ती जाती है !

अगर  आपसे कहा जाए कि कोई व्यक्ति टोपियों का इतना शौकीन है कि उसके घर में हर जगह टोपियाँ हैं - बैठक में टोपियाँ, मेज के नीचे टोपियाँ, पलंग के ऊपर टोपियाँ, नीचे टोपियाँ, बाथरूम में टोपियाँ, टॉयलेट में, किचेन में,  छत में टोपियाँ, यहाँ तक कि उसने अपने घर आँगन में और घर के पीछे टोपियाँ  रखने के लिए गोदाम बना दिए हैं, और अब टोपियाँ रखने के लिए एक और मकान  खरीदने की सोच रहा है, तो आप बिना देर लगाए कहेंगे कि वो शौकीन नहीं पागल है। लेकिन आज पैसा धन संग्रह करने में पागलों की तरह लगे लोगों की तस्वीरें पत्रिकाओं के कवर पर छपतीं हैं और उन्हें समाज में बहुत सम्मान मिलता है ; उन्हें हमारे रोल मॉडल या आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

आप सोचिए कि अगर अनाज, फल, सब्जियों, तेल आदि की जमाखोरी करना नाजायज और गैरकानूनी है, तो इन चीजों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक धन की जमाखोरी करना कैसे जायज और कानूनी हो सकता है। 

धन से 'नीड' अर्थात आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है 'ग्रीड' अर्थात लालच की नहीं।  आज भ्रष्टाचार के लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्हे लालच की  बीमारी  है। जिन्हे आवश्यकता के लिए नहीं बल्कि विलासिता और सामाजिक रूतबे के लिए पैसा चाहिए; ऐसे ही लोग -- वे चाहे सरकारी कर्मचारी हों या पूँजीपति व्यापारी -- घोटाले करते हैं, मोटी-मोटी रिश्वतें लेते और देते हैं। जरूरतों को पूरा करने के लिए किया गया भ्रष्टाचार आसानी से समाप्त किया जा सकता है, लेकिन लालच से पैदा हुआ भ्रष्टाचार सिर्फ अमीरी रेखा बनाने से ही समाप्त हो सकता है। भ्रष्टाचार का ख़ात्मा करने के लिए उसकी जड़ यानी 'लालच' पर लगाम लगानी होगी।

यहाँ यह सवाल पैदा हो सकता है कि किसी भी व्यक्ति की आमदनी और खर्चे पर नियंत्रण कैसे रखा जा सकता है ? यह काम मुश्किल तो है परन्तु विज्ञान और तकनीकी के इस युग में असंभव नहीं है। क्या फोन के टॉक-टाइम और इंटरनेट डेटा की तरह हम धन के उपयोग पर भी नियंत्रण नहीं रख सकते हैं ? 

3. मंदी का ख़ात्मा : आज देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था भारी मंदी का सामना कर रही है।  बाज़ार सामान से अटे पड़े हैं, पर खरीदार नहीं हैं।  मकान, वाहन, नियमित उपयोग की वस्तुएँ जैसे टूथपेस्ट, साबुन, तेल आदि तक को  बेचना मुश्किल हो रहा है। अमेरिका जैसे देश में भी खाली मकानों की संख्या (1 करोड़ 86 लाख) बेघर लोगों की संख्या  से इतनी अधिक है कि  हर बेघर को 6 मकान मिल सकते हैं। 

अर्थव्यवस्था में यह मंदी की स्थिति तभी आती है जब मुट्ठीभर लोगों के हाथ में सीमित धन का ज्यादातर हिस्सा जमा हो जाता है । ऐसे में आबादी के एक  बड़े हिस्से की 'खरीदने की क्षमता' कम हो जाती है या पूरी तरह से ख़त्म हो जाती है। ऐसी स्थिति में जब फैक्टरियों में बना माल पूरी तरह से बिकता नही है, तो पूंजीपति उत्पादन कम कर देते हैं और कर्मचारियों की छंटनी कर देते हैं। इससे बेरोजगारी बढ़ती है और जनता की क्रयशक्ति और कम हो जाती है। ऐसी ही स्थिति को कहा जाता है 'आर्थिक मंदी' ।

इसका समस्या का समाधान है कि पैसा कुछ लोगों की जेबों में ही बंद न रहे ।  जैसे रुका हुआ जल सड़ता है और बीमारियों को जन्म देता है, वैसे ही रुका हुआ धन मंदी, बेरोजगारी, गरीबी, भ्रष्टाचार और अपराध को जन्म देता है । जरूरी है कि पैसा जन-जन तक जाए ; उनकी खरीदने की क्षमता बढे ; उत्पादित सामान बिके; लोगों का जीवन स्तर सुधरे और अर्थव्यवस्था आगे बढे । और ऐसा संभव है सिर्फ अमीरी रेखालागू करने  से।

4. बेरोजगारी का ख़ात्मा : लगभग 10 लाख भारतीय युवा हर महीने बेरोज़गारों की कतार में लग जाते हैं, यानी हर साल देश को लगभग 1 करोड़ 20 लाख नए रोज़गार पैदा करने की आवश्यकता है। लेकिन इसके विपरीत 2012 से  2018 तक 2 करोड़ लोगों का रोजगार छीन गया। 
                                                                                                                                                                     क्या आज हमारे पास लाखों-करोड़ों रोज़गार हैं ? जी नहीं ! क्या इतने रोज़गार पैदा किये जा सकते हैं ? जी हाँ, ये रोज़गार पैदा किए जा सकते हैं। आज आप जहाँ भी नज़र डालें, तो देखेंगे कि कितनी ही सड़कें, रेल की पटरियाँ, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, उद्योग आदि बनने बाकी हैं । इन्हें बनाने और इनमे काम करने के लिए बेरोजगारों की एक बड़ी संख्या भी है, परन्तु सरकार का कहना है कि इन कामों को करवाने के लिए अर्थात निवेश के लिए उसके पास पर्याप्त धन नहीं है । हर सरकार का यही रोना होता कि सरकारी खज़ाना खाली पड़ा है । इसलिए सरकार मुँह देखती है बड़े-बड़े देशी और विदेशी पूँजीपतियों का। सरकार एफ.डी.आई. या  पी.पी.पी के नाम पर इन धन्ना सेठों से मदद लेती है। इन्हे बैंकों से कम से कम ब्याज दर पर कर्ज दिलवाती है और ज़रूरत पड़ने पर इनके टैक्स और कर्ज माफ़ कर देती है। बदले में  ये धन कुबेर रोजगार पैदा करने के नाम पर  कम से कम  लगा कर अधिक से अधिक बटोर लेना चाहते हैं। और अगर ऐसा नही हो पाता है, तो जनता का रोजगार जाए भाड़ में, ये तुरन्त ऐसे काम से निकल जाते हैं।

आज धनपति शेयर बाज़ार के सट्टे ( स्पेक्युलेशन ) में पैसा लगाकर थोड़े समय में ही मुनाफा कमा लेना ज्यादा बेहतर समझते हैं। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन ईटवैल के अनुसार 1970 में विश्व का 90 प्रतिशत  धन व्यापार और अन्य उत्पादक गतिविधियों में लगा हुआ था और 10 प्रतिशत  सट्टे में, परन्तु 1990 तक स्थिति बिलकुल उलट हो गई यानी 90 प्रतिशत  धन सट्टे में लग गया और उत्पादक गतिविधियों के लिए मात्र 10 प्रतिशत  बचा।

अमीरी रेखा बना देने से धन कुछ मुट्ठीभर लोगों के हाथ में जमा नहीं हो पाएगा और केंद्र सरकार, स्थानीय सरकार व विधायिका के प्रति उत्तरदायी केंद्रीय बैंक तथा सहकारी बैंकों के माध्यम से विकाश कार्यों के लिए पर्याप्त धन लगेगा; अधिक से अधिक रोजगार के अवसर पैदा होंगे।  धन एक हाथ से दूसरे हाथ तक पहुँच कर पूरी अर्थव्यवस्था में प्रवाहित रहेगा। उसका अधिक से अधिक विकेन्द्रीकरण और समाजीकरण होगा तथा बेरोजगारी का खात्मा हो जाएगा।

5. अपराध में भारी कमी :  धन की अधिकता और धन की कमी -- दोनों ही अपराध का एक बहुत बड़ा कारण है। जहाँ एक ओर, पैसा कम होने से लोग अपराध करने के लिए मजबूर होते हैं और पूरे समाज के लिए खतरा बनते हैं, वहीं दूसरी ओर पैसे की अधिकता से भी लोग विलासी बनते हैं और उनका दिमाग बुराइयों में लग जाता है।

आज अगर आप पढ़ाई में बहुत अच्छे हैं और आपकी किस्मत अच्छी है, तो आप कठिन परीक्षाओं को पास कर मुट्ठीभर नौकरियों में से एक अपने लिए एक झपट पाएँगें; या फिर कोई निजी व्यवसाय शुरू करने के लिए आपके पास खूब पैसा है, तो आप जीने के लिए कुछ कमा पाएँगे, वरना आप मरने के लिए स्वतंत्र हैं। 

सवाल है यह कि जो ऐसा नहीं कर पाते उनके लिए क्या व्यवस्था है; क्या उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान नहीं चाहिए? और इन्हे पाने के लिए अगर वे अपराध का रास्ता अपना लें, तो क्या यह स्वाभविक नहीं है ? इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि उचित रोजगार के माध्यम से न्यूनतम आय की गारण्टी और अधिकतम संपत्ति की सीमा निर्धारित कर देने से यानी अमीरी रेखा बनाने से अपराधों में भारी कमी आएगी।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि उपरोक्त समस्याओं को हल करने के लिए हमें अर्थव्यवस्था में  कई और बड़े परिवर्तन करने होंगें । कृषि, उद्योग, वाणिज्य, व्यापार, बैंकिंग, कर व्यवस्था आदि को विकेन्द्रित ढंग से पुनर्नियोजित एवं पुनर्गठित करना होगा, परन्तु इसका आधार होगा सीमित भौतिक संसाधनों पर सामाजिक नियंत्रण की नीति यानी -- अमीरी रेखा।





स्त्रोत:
4.        https://scroll.in/article/826484/embargoed-jan-16-00-01gmt-57-billionaires-possess-70-of-indias-wealth-oxfam-inequality-report



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